Saturday 3 November 2018

भागवत पुराण

भागवत पुराण (अंग्रेज़ीBhaagwat Puraana) हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् (अंग्रेज़ीShrimadbhaagwatam) या केवल भागवतम् (अंग्रेज़ीBhaagwatam) भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।
श्रीमद्भागवत  
भागवत.gif
गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ
लेखकवेदव्यास
देशभारत
भाषासंस्कृत
श्रृंखलापुराण
विषयश्रीकृष्ण भक्ति
प्रकारप्रमुख वैष्णव ग्रन्थ
पृष्ठ१८,००० श्लोक
सन १५०० में लिखित एक भागवत पुराण मे यशोदा कृष्णको स्नान कराते हुए
श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेवद्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है।[1]

परिचयसंपादित करें

अष्टादश पुराणों में भागवत नितांत महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण है। पुराणों की गणना में भागवत अष्टम पुराण के रूप में परिगृहीत किया जाता है (भागवत 12.7.23)। भागवत पुराण में महर्षि सूत गोस्वामी उनके समक्ष प्रस्तुत साधुओं को एक कथा सुनाते हैं। साधु लोग उनसे विष्णु के विभिन्न अवतारों के बारे में प्रश्न पूछते हैं। सूत गोस्वामी कहते हैं कि यह कथा उन्होने एक दूसरे ऋषि शुकदेव से सुनी थी। इसमें कुल बारह सकन्ध हैं। प्रथम काण्ड में सभी अवतारों को सारांश रूप में वर्णन किया गया है।
आजकल 'भागवत' आख्या धारण करनेवाले दो पुराण उपलब्ध होते हैं :
अत: इन दोनों में पुराण कोटि में किसकी गणना अपेक्षित है ? इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है।
विविध प्रकार से समीक्षा करने पर अंतत: यही प्रतीत होता है कि श्रीमद्भागवत को ही पुराण मानना चाहिए तथा देवीभागवत को उपपुराण की कोटि में रखना उचित है। श्रीमद्भागवत देवीभागवत के स्वरूपनिर्देश के विषय में मौन है। परंतु देवीभागवत 'भागवत' की गणना उपपुराणों के अंतर्गत करता है (1.3.16) तथा अपने आपको पुराणों के अंतर्गत। देवीभागपंचम स्कंध में वर्णित भुवनकोश श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में प्रस्तुत इस विषय का अक्षरश: अनुकरण करता है। श्रीभागवत में भारतवर्ष की महिमा के प्रतिपादक आठों श्लोक (5.9.21-28) देवी भागवत में अक्षरश: उसी क्रम में उद्धृत हैं (8.11.22-29)। दोनों के वर्णनों में अंतर इतना ही है कि श्रीमद्भागवत जहाँ वैज्ञानिक विषय के विवरण के निमित्त गद्य का नैसर्गिक माध्यम पकड़ता है, वहाँ विशिष्टता के प्रदर्शनार्थ देवीभागवत पद्य के कृत्रिम माध्यम का प्रयोग करता है।
श्रीमद्भागवत भक्तिरस तथा अध्यात्मज्ञान का समन्वय उपस्थित करता है। भागवत निगमकल्पतरु का स्वयंफल माना जाता है जिसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मज्ञानी महर्षि शुक ने अपनी मधुर वाणी से संयुक्त कर अमृतमय बना डाला है। स्वयं भागवत में कहा गया है-
सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते।
तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित् ॥
श्रीमद्भाग्वतम् सर्व वेदान्त का सार है। उस रसामृत के पान से जो तृप्त हो गया है, उसे किसी अन्य जगह पर कोई रति नहीं हो सकती। (अर्थात उसे किसी अन्य वस्तु में आनन्द नहीं आ सकता।)

भागवत की टीकाएँसंपादित करें

'विद्यावतां भागवते परीक्षा' : भागवत विद्वत्ता की कसौटी है और इसी कारण टीकासंपत्ति की दृष्टि से भी यह अतुलनीय है। विभिन्न वैष्णव संप्रदाय के विद्वानों ने अपने विशिष्ट मत की उपपत्ति तथा परिपुष्टि के निमित्त भागवत के ऊपर स्वसिद्धांतानुयायी व्याख्याओं का प्रणयन किया है जिनमें कुछ टीकाकारों का यहाँ संक्षिप्त संकेत किया जा रहा है:

देशकाल का प्रश्नसंपादित करें

भागवत के देशकाल का यथार्थ निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। एकादश स्कंध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान्‌ वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान्‌ लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं। भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान्‌ तमिलदेश को इसके उदय का स्थान मानते हैं।
काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध, जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा थी), महादेव (सन्‌ 1260-71) तथा राजा रामचंद्र (सन्‌ 1271-1309) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं, भागवत के रचयिता नहीं माने जा सकते। शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पादाचार्य ने अपने 'पंचीकरणव्याख्या' में 'जगृहे पौरुषं रूपम्‌' (भा. 1.3.1) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भा. 10.14.4) भागवत के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन नहीं मानी जा सकती।
निम्नलिखित तालिका में कुछ विद्वानों द्वारा सुझाया गया भागवत पुराण का रचनाकाल दिया गया है-
भागवत पुराण का कालनिर्धारण[2]
अनुमातित कालशोधकर्ता तथा प्रकाशनप्रकाशन वर्ष
1200-1000 a. C.S. D. Gyani (Date of the Puranas, NIA 5, pág. 132)1943
900 a 800 a. C.Ramnarayan Vyas, en Bhāgavata-purana, pág. 34-351974
200 से 300V. R. Ramachandra Dikshitar(1896-1953), en The Purana index, pág. 55: 1.xxix1951
300 से 400Ganesh Vasudeo Tagare, en Bhāgavata, pág. 1.xxxiv-xxxvii1978
400 से 500B. N. Krishnamurti Sharma, en Bhāgavata-purana, págs. 190-2181933
400 से 500Dra. T. S. Rukmani (1932-), en Bhāgavata-purana, pág. 12-141970
500 से 550R. C. Hazra (1905-1982)1938
500 से 600Bimanbehari Majumdar (n. 1900 aprox.), en Bhāgavata-purana, pág. 3841961
500 से 600N. Ranganatha Sharma (1916-2014), en Bhāgavata-purana1978
550 से 600Ray (Bhāgavata-purana, pág. 79)1935
750Gail (Bhāgavata-purana, pág. 16)1969
800 से 850Nilakanta Sastri (1892-1975) (Bhāgavata-purana, pág. 139)[3]1941
800 से 900Kane (Bhāgavata-purana, pág. 899)1962
800 से 900Pargiter (Bhāgavata-purana, pág. 80)1922
800 से 900Walter Elliot (1803-1887), en Bhāgavata-purana, introducción1921
800 से 1000Daniel H. H. Ingalls (1916-1999), en Milton Singer (ed.): Krishna: Myths, Rites and Attitudes, prefacio, pág. vi)1966
850 से 900T. Hopkins (en Singer, pág. 6)[4]1966
850 से 1000R. K. Mukerjee (Lord of the Autumn Moons. Bombay: APH, pág. 65-66)1957
900Bhaktivinoda Thakura (1838-1914), en el Sri Krisna-samhita(introducción)[5]1880
900John Nicol Farquhar (An outline of the religious literature of India, pág. 233)[6]1920
900Sarvepalli Radhakrishnan(1888-1975), en Indian philosophy, pág. 2667
900Wendy Doniger O'Flaherty(Bhāgavata-purana)1974
950Sharma (en Morgan, pág. 38)1953
950Nilakanta Shastri (History of South India, pág. 342).
900 से 1000Vaidya (Bhāgavata-purana)1925
900 से 1000Moris Winternitz (1863-1937), pág. 5561925
900 से 1000Moris Winternitz (1863-1937), pág. 4871963
1000Surendranath Dasgupta(1887-1952)1949
1000R. G. Bhandarkar (1837-1925), pág. 491913
1200 से 1300Henry Thomas Colebrooke(1765-1837)
1200 से 1300Horace Wilson (1786-1860)
1200 से 1300Eugène Burnouf (1801-1852)
1200 से 1300Christian Lassen (1800-1876)
1200 से 1300Arthur Macdonell (1854-1930)

प्रभावसंपादित करें

भागवत का प्रभाव मध्ययुगीय वैष्णव संप्रदायों के उदय में नितांत क्रियाशील था तथा भारत की प्रांतीय भाषाओं के कृष्ण काव्यों के उत्थान में विशेष महत्वशाली था। भागवत से ही स्फूर्ति तथा प्रेरणा ग्रहण कर ब्रजभाषा के अष्टछापी (सूरदासनंददास आदि), निम्बार्की (श्रीभट्ट तथा हरिव्यास), राधावल्लभीय (हितहरिवंश तथा हरिदास स्वामी) कवियों ने ब्रजभाषा में राधाकृष्ण की लीलाओं का गायन किया। मिथिला के विद्यापतिबंगाल के चंडीदासज्ञानदासतथा गोविंददासअसम के शंकरदेव तथा माधवदेवउत्कल के उपेन्द्र भंज तथा दीनकृष्णदासमहाराष्ट्र के नामदेव तथा माधव पंडितगुजरात के नरसी मेहता तथा राजस्थान की मीराबाई - इन सभी संतों तथा कवियों ने भागवत के रसमय वर्णन से प्रेरणा प्राप्त कर राधाकृष्ण की कमनीय केलि का गायन अपने विभिन्न काव्यों में किया है। तमिलआंध्रकन्नड तथा मलयालम के वैष्णव कवियों के ऊपर भी भागवत का प्रभाव भी कम नहीं है।
भागवत का आध्यात्मिक दृष्टिकोण अद्वैतवाद का है तथा साधनादृष्टि भक्ति की है। इस प्रकार अद्वैत के साथ भक्ति का सामरस्य भागवत की अपनी विशिष्टता है। इन्हीं कारणों से भागवत वाल्मीकीय रामायण तथा महाभारत के साथ संस्कृत की 'उपजीव्य' काव्यत्रयी के अन्तर्भूत माना जाता है।

संरचनासंपादित करें

भागवत में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय तथा 12 स्कन्ध हैं। इसके विभिन्न स्कंधों में विष्णु के लीलावतारों का वर्णन बड़ी सुकुमार भाषा में किया गया है। परंतु भगवान्‌ कृष्ण की ललित लीलाओं का विशद विवरण प्रस्तुत करनेवाला दशम स्कंध भागवत का हृदय है। अन्य पुराणों में, जैसे विष्णुपुराण (पंचम अंश), ब्रह्मवैवर्त (कृष्णजन्म खंड) आदि में भी कृष्ण का चरित्‌ निबद्ध है, परंतु दशम स्कंध में लीलापुरुषोत्तम का चरित्‌ जितनी मधुर भाषा, कोमल पदविन्यास तथा भक्तिरस से आप्लुत होकर वर्णित है वह अद्वितीय है। रासपंचाध्यायी (10.29-33) अध्यात्म तथा साहित्य उभय दृष्टियों से काव्यजगत्‌ में एक अनूठी वस्तु है। वेणुगीत (10.21), गोपीगीत, (10.30), युगलगीत (10.35), भ्रमरगीत (10.47) ने भागवत को काव्य के उदात्त स्तर पर पहुँचा दिया है।
भागवत के १२ स्कन्द निम्नलिखित हैं-
स्कन्ध संख्याविवरण
प्रथम स्कन्धइसमें भक्तियोग और उससे उत्पन्न एवं उसे स्थिर रखने वाला वैराग्य का वर्णन किया गया है।
द्वितीय स्कन्धब्रह्माण्ड की उत्त्पत्ति एवं उसमें विराट् पुरुष की स्थिति का स्वरूप।
तृतीय स्कन्धउद्धव द्वारा भगवान् का बाल चरित्र का वर्णन।
चतुर्थ स्कन्धराजर्षि ध्रुव एवं पृथु आदि का चरित्र।
पंचम स्कन्धसमुद्र, पर्वत, नदी, पाताल, नरक आदि की स्थिति।
षष्ठ स्कन्धदेवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के जन्म की कथा।
सप्तम स्कन्धहिरण्यकश्यिपु, हिरण्याक्ष के साथ प्रहलाद का चरित्र।
अष्टम स्कन्धगजेन्द्र मोक्ष, मन्वन्तर कथा, वामन अवतार
नवम स्कन्धराजवंशों का विवरण। श्रीराम की कथा।
दशम स्कन्धभगवान् श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाएं।
एकादश स्कन्धयदु वंश का संहार।
द्वादश स्कन्धविभिन्न युगों तथा प्रलयों और भगवान् के उपांगों आदि का स्वरूप।

चित्रावलीसंपादित करें